यह मनुष्य रूपी जीव बहुत बड़ा नाटककार है, इसको ध्यान से देखें. सुबह से रात तक किसिम किसिम के रोल .
अखबार और चाय की प्याली के साथ महान चिंतक ! जमाने की पोस्टमार्टम करता हुआ, राजनीति के दांवों की
विकट भविष्यवाणियां, शेयर बाज़ार का अफ़लातून
नहा धो कर काशी का पंडा'
दफ़्तर में शेर या गीदड़ ( पदनाम और यूनियन की साख पर निर्भर है ), फ़ाईल डील करते वक्त लोमड़ी . बेगैरत फ़ाईल हुई
तो रंभाती गाय, क्या करे नौकरिया जो करनी है, बड़े साहब माल काट गये और पिसे हम. यही कलयुग है कि आहें भरते हुए.
गोया कलयुग में ईमानदारी निभाने का पहाड़ उन्ही पर टूट पड़ा है .
सड़्क पर कुलांचे भरते कामदेव के चपरकनाती, बस में बैठे तो हवाईज़हाज़, ए भाई, देर क्यों हो रही है की टेर लगाते हुए
खिज़ियाती मुद्रा जैसे टेक-आफ़ करते ज़हाज़ की निरंतर टेढ़ी होती जाती दुम.
सब्जीवाले के लिये महा के कुंजड़े - जैसाकि वह श्रीमान के प्रस्थान करने के बाद बड़बड़ाता है
ड्बलरोटी की दुकान पर पड़ोस की भाभी जी दिख जायें तो खुद तिबलरोटी बन जायें !
घर में घुसने से पहले नुक्कड़ की दुकान पर एक सिगरेट जरूर पियेंगे, साली प्रेशर नही बनके देती . मै जिन्दगी का साथ
निभाता चला गया के अंदाज़ में धुंआं उड़ाते हुए मुहल्ले के दो-तीन ( बाल )रंगेसियारों से लौंडे-लौंडियों की ताज़ा खबर लेते हुए आपको
न दिखें तो मेरा क्या कसूर .
घर में घुसते एक उचटती निगाह अम्मा बप्पा पर डाल हांक लगायेंगे - चाय बन गयी क्या, लो जी फिर शेर हो गये, रात में सवासेर हो जायेंगे
तो मित्रों यह एक बानगी भर है प्रथम पुरूष का. जो भी आपकी निगाह में आये अपनी नज़रें मांज-मूंज कर देखें और यहां शेयर करें. आपका स्वागत है !
आप यहां निमंत्रित हैं , सुस्वागतम !
यह पन्ना आपके वर्तमान की प्रासंगिकता को समर्पित है !
केवल यथार्थ और कुछ नहीं
21 September 2007
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